Wednesday, September 22, 2010

प्रफुल्ल कोलख्यान

                                                                                 वागथ में
नये साल में एक प्रश्न - आख़र इस दर्द की दवा क्या है।


हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र के रूप में ढालना है। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नही टिक सकता जब तक कि उसकी आधारशिला के रूप में सामाजिक लाकतंत्र न हो । सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन की वह राह जो स्वाधीनत, समानता एवं भ्रातृत्व को जीवन के सिध्दांन्त के रूप में मान्यता दे।
भीमराव आंबेदकर
(संविधान सभा में दिया गया भाषण, नवंबर १९४९)

दुखद है कि सामाजिक लोकतंत्र का लक्ष्य हमारी दृष्टि से निरंतर ओझल होता चला गया है। हमारी संवेदना को काठ मार गया है। सामाजिक आचरण में सार्वजनिक क्रुरताओं का लगभग निर्विरोध समावेश एक त्रासद सच्चाई है। नई क्षमताओं से लैस क्रुरताएं जीवन में घुसकर मुस्कुरा रही है। सच है कि आंकड़ो की कुछ सीमाएं होती है, इन सीमाओ के बावजूद इनके महत्व को नकारना संभव नही है। राष्ट्रीय अपराध व्यूरो के एकत्र आंकड़े के अनुसार समाज में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों पर निरंतर अत्याचार बढ़ रहें है। आज भी भारत में 'गोहाना` हो जाता है। यह 'गोहाना` का हो जाना कोई एकल या अपवाद नही है। बदले हुए नाम-रूप से 'गोहााना` प्रकट होता ही रहा है। भारतीय संस्कृति में दलित के प्रति सामाजिक सलूक का सलीका ऐसा फांस है, जिससे जितनी जल्दी मुक्त हुआ जाये उतना ही बेहतर है। इस दिशा में प्रयास बिल्कुल ही नही हुए हो, ऐसी बात नही। प्रयास हुऐ है।, लेकिन वे सारे प्रयास अपने मकसद को हासिल कर पाने में विफल ही रहे है। भारतीय आत्मा को जाति-धर्म की बनाई रसौली की टीस आज भी बेचैन बना रही है। जाति का संबंध सामाजिक हैसियतों और आर्थिक उद्यमों से भी है।
हिन्दी भाषा के वृहत्तर साहित्य में हिन्दी सामाजिकता का स्थान निरंतर संकुचित होता जा रहा है। यह सच है कि भारतीय समाज के बहुत बड़े हिस्से के जीवन यापन, उनकी सांस्कृतिक स्थितियों को समझने के लिए साहित्य में प्रमाणिक आधार विरल होते जा रहे है। ऐसे माहौल में संजीव खुदशाह की किताब 'सफाई कामगार समुदाय` का आना महत्वपूर्ण है। यह किताब बहुत बड़ी कमी को दूर करने का गंभीर प्रयास है। इस पुस्तक के खंड-१ में शूद्र, अछूत, अछूतपन का प्रारंभ, परिस्थिति , शूद्र कैान है? गा्रमों में शूद्रों की स्थिति, अछूतपन कब से? क्या अछूत भी ब्राम्हणों से घृणा करते थे? जैसे शीर्षक के अंतर्गत विचार किया गया है। खण्ड-२ में सफाई कामगार प्रारंभ की परिकल्पना, प्रकार, भंगी का अभिप्राय एवं वर्गीकरण पर तीन परिकल्पनाएं दी गई है। इस खण्ड में पेशा एवं उद्गम के आधार पर और कार्य के आधार पर कामगार समुदाय का वर्गीकरण किया गया है एवं भंगी पर विचार किया गया है। खण्ड-३ में सफाई कामगार के पौराणिक संदर्भ से जाति नामकरण में विवाद, टाटेम क्या है?, श्वपच, चंाडाल,डोम के संदर्भ में विचार किया गया है। खण्ड-४ में सामाजिक परिवेश और खण्ड-५ में संगठन, विकास एवं सामाधान कथा का विवेचन हुआ है।
भारतीय संस्कृति में निहित एकता की बात चाहे जितनी जोर-शोर से की जाय सच यही है कि भारतीय समाज भीतर से विभाजित समाज रहा है। डॉ. बिन्देश्वर पाठक पीड़ा के साथ दर्ज करते है। कि 'संसार भर में वाल्मीकियों की सबसे अधिक संख्या इसी देश में क्यों है? और भी इस भूमि पर, गांधीजी जैसे लोगों के हो जाने के बाद भी, जिन्होने मंगी-मुक्ति को स्वाधीनता संग्राम का लगभग एक हिस्सा-रचनात्मक कार्यक्रम मानते हुए आंदोलन चलाया और अपनी यह भावना प्रकट की कि पुनर्जन्म लेना ही पड़े तो ऐसे ही परिवार में जन्म लें ताकि उन्हे जीवनऱ्यापन की इस नारकीय कारा से मुक्त करवाने एवं सम्मान जनक-सुंदर-सुखद जीवन जीने का अवसर और अधिकार सुलभ कराने के अभियान में जिन्दगी लगा दे।` दिक्कत यहीं है-इस 'पुनर्जन्म` को गौर से देखना चाहिए। भारतीय (संकुचित अर्थ में हिंदू) सामाजिकता में 'पुनर्जन्म` की संकल्पना का संस्थापन सामाजिक न्याय के अनंत स्थगन को वैध बनाकर उसके अंतत: और स्वत: हासिल होने का भरोसा बनाये रखता है। 'पुनर्जन्म` की संकल्पना एक ऐसा पासंग है  जिसने भारतीय-बोध में निहित नैसर्गिक-न्याय के चरित्र को ही बदल दिया। यह सभ्यता का अनुभव है कि सद्भावनाओं से प्रारंभ तो किया जा सकता है लेकिन अंतत: ठोस सामाजिक सच्चाइएंको सिर्फ भावनाओं के बल पर बदला नही जा सकता है। धृणा के सामाज-शास्त्र के साथही धृणा के अर्थ-शास्त्र पर भी काम किये जाने की ज़रूरत है। संजीव खुदशाह मज़दूरी देने में कृपण मानस के भीख देने में उदार होने के विक्षेप को बहुत सफाई से रेखांकित करते है। ''वास्तव में, सभी मानव एक हैं। इनमें शारीरिक विभिन्नताएं नही है। यदि हम भौतिक आधार-जैसे रंग-रूप्, बनावट, उंचाई, रक्त ग्रुप, डी.एन.ए. आदि पर परखें तो जाति प्रदर्शित नही होती है। किंतु विश्व की महान सभ्यता दंभ भरने वाली हिन्दू सभ्यता (भारतीय सभ्यता), सबसे महत्वपूर्ण मामले (आजन्म जाति बंधन) में असभ्यता दिखाकर इतिहासकारों के सामने कई सवालिया निशान छोड़ रही है। यहां भिखारियों को भीख (भारत में एक खा़स वर्ग को दान देने की धार्मिक परंपरा है।) तो दी जाती है पर मज़दूरों को दिहाड़ी (दैनिक मज़दूरी) देने में संकोच होता है। क्योकि भिखारी का ताल्लुक घ्ंची जाति से तथा मज़दूरो का ताल्लुक नीची जाति से होता है।`` इस प्रवृत्ति को सामाजिक आचरण की पध्दति में और गहनता से तलाशना चाहिए।
संजीव खुदशाह की किताब के  नाम से ही स्पष्ट है, इस पुस्तक में वे सफाई कामगार का अध्ययन समुदाय के रूप में करतें है। एक समुदाय के रूप में इस समुदाय के विकास के ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक आदि संदर्भो को शोध-मानकों का अनुसरण करते हुएइस पुस्तक में स्पष्ट किया गया है। कहना न होगा कि सफाई कामगार के समुदायिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए यह एक दोस्त किताब है। संजीव खुदशाह की किताब 'सफाई कामगार समुदाय` साधारण पाठको के साथ ही सामाजिक संदर्भो में काम करने वाले चिंतन करने वाले लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण है।
ए-८/१६ आवासन १३८/३, एस.मुखर्जी मार्ग, हुगली ७१२२३५

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