Wednesday, September 22, 2010

आलोक कुमार सातपुते

नयी स्थापनाओं का दस्तावेज : सफाई कामगार समुदाय

 

पिछले दिनों संजीव खुदशाह द्वारा लिखित पुस्तक ''सफ़ाई कामगार समुदाय`` पढ़ी। राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि. द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए सफ़ाई कामगारों की ऐतिहासिक, मानववैज्ञानिक, भाषावैज्ञानिक एवम् समाजशास्त्रीय व्याख्या की है और इन आधारों पर नयी स्थापनाएँ भी दी हैं। संभवत: हिन्दी भाषा की अपनी तरह की इस पहली पुस्तक में लेखक ने शुरूआती वक्तव्य में ही अपने विचार स्पष्ट कर दिये हैं। लेखक का यह कथन कि हमारे यहाँ भिखारियों को भीख तो दे दी जाती है, पर मजदूरों को उनके श्रम की मजदूरी देने मे आनाकानी की जाती है। यहाँ अतिथि की आवभगत उसकी जाति के आधार पर की जाती है । हर व्यक्ति की योग्यता पर उसकी जाति हावी है । हम गर्व के साथ अपनी महान् सभ्यता का ढिंढोरा पीटते हैं, तो क्या इन सभी मानसिकताओं को अपनी सभ्यता का पिरामिड मान लें ?

संजीव खुदशाह ने वेदों से लेकर वर्तमान सन्दर्भों तक की गहरी पड़ताल की है और नयी स्थापनाओं को स्थापित करने का सद्प्रयास किया है । उनके अनुसार सवर्णों ने इस बात का पूरा ख्य़ाल रखा कि शूद्र के अन्तर्गत आने वाली जातियों में एकता न हो। इस हेतु उन्होंने ऐसे ही ग्रंथों की रचना कर उन्हें जन-जन तक पहुँंचाने का अभियान चलाया और वे इनके बीच में फूट डालने में क़ामयाब भी रहे।  संभवत: यही कारण रहा कि यहाँ हर जाति अपने आपको दूसरी जाति से श्रेष्ठ समझने लगी और सवर्णों की वफ़ादारी में प्रथम आने की होड़ में लगी रही। सवर्णों का यह भी प्रयास रहता कि दीगर जातियाँ उनसे किसी भी रूप में आगे न बढ़ पायें, इस हेतु वे साज़िश रचते रहते थे ।

लेखक ने सफ़ाई कामगार समुदाय के अन्तर्गत आने वाली जातियों को अवर्ण माना है। उनका कहना है कि अवर्ण, सवर्ण का विपरीत शब्द है  आमतौर पर सवर्ण में ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य ही माने जाते हैं। किन्तु शाब्दिक अर्थ से देखें तो अवर्ण का अर्थ जो चारों वर्णों के अन्तर्गत नहीं आते हैं। ऐसे में अछूत या अतिशूद्र इन चतुर्वर्णो से बाहर की जातियाँ हैं । नारद स्मृति के सन्दर्भों का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि एक क्षत्रिय, एक वैश्य तथा एक शूद्र, क्षत्रिय का दास हो सकता था। एक वैश्य और एक शूद्र, वैश्य का दास हो सकता था, किन्तु शूद्र का दास केवल शूद्र ही हो सकता था । अर्थात् यहाँ पर ब्राह्मण भी दास होने की सम्भावना से मुक्त नहीं था और दासों से सफ़ाई का कार्य लिया जाता था । इससे यह सिद्ध होता है कि गन्दे पेशे से लगना, छुआछूत का कारण नहीं रहा होगा। उस समय छुआछूत का कारण, इन जातियों द्वारा गौमांस का सेवन करना ही रहा होगा, क्योंकि उस समय गाय को पवित्र माना जाता था और गौमांस का सेवन, पाप बन गया था। वर्तमान सन्दर्भों में यह पेशा संसार के सभी मानव समाज में है, लेकिन उनके बीच अछूतपन की भावना नहीं है।

इस पुस्तक का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि क्या अछूत भी ब्राम्हण से घृणा करते हैं? इस में सामाजिक शोधों द्वारा लेखक ने यह साबित किया है कि अछूत जातियों में से कई जातियाँ ब्राम्हणों से भी घृणा करती रही हैं। कुछ जातियों में यह मान्यता है कि यदि ब्राम्हण उनके घरों के बीच से गुज़रेगा तो वहाँ महाविनाश हो जायेगा। उड़ीसा के कुम्भीपटिया जातियों के लिये ब्राम्हण अछूत है। इसी तरह मद्रास प्रान्त की कापू जाति घोर ब्राम्हण विरोधी है। पुस्तक से यह जानकारी मिलती है कि भंगी का शाब्दिक अर्थ भंग करने वाला होता है अत: हो सकता है कि ये आर्यों के धार्मिक संस्कारों को भंग करते रहे हों या हो सकता है कि, प्राचीनकाल में गांव और शहरों से दण्डस्वरूप तड़ीपार किये गये लोग आगे चलकर गांव से बाहर ही बसने लगे और जीविका चलाने के लिये सफ़ाई का कार्य करते रहे हों।

वेदो, पुराणों और स्मृतियों में तो जाति तथ्यों को एकदम उलझाकर रख दिया गया है। जैसे ब्राम्हण पिता और वैश्य माता की सन्तान को कुम्हार बताया गया है जबकि यह तथ्य गल़त है । वास्तव में एक षडयंत्र के तहत सवर्णों ने अपना रक्त शुद्ध सिद्ध करने के लिये यह कल्पना की। उनके  इस षड़यंत्र के पीछे का मूल उद्देश्य इन छोटी जाति कें लोगों को सवर्णों की अवैध सन्तान बताकर, उनमें हीन भावना उत्पन्न करना था।

मुगल़काल का ज़िक्र करते हुए लेखक ने यह बताया है कि उस काल में अधिकतर युद्ध बन्दी क्षत्रिय होते थे और इन्ही युद्धबंदियों से वलपूर्वक पाखाने की सफ़ाई कराई जाती थी। इनमें से कुछ ने सुविधाओं की लालच में ईस्लाम स्वीकार कर लिया। वे इस्लाम की उचीं जातियों में प्रवेश पा गये तथा जिन्होने भीतर से हिन्दू धर्म संस्कार को संजोय रखा वे बीच मे ही रह गये। सम्भवत: यही कारण है कि इन समुदाय के कुछ लोगों में गगा-जमुना संस्कृति देखने को मिलती है। अधिकांश सफ़ाई कामगार समुदाय के लोग सुअर पालते थे और उसका मांस खाते थे, चूकि मुसलमान सुअर को हर्राम समझते है, इसलिये इस समुदाय के लोग भी घृणा के पात्र बने।

अंग्रेजी राज का जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि अंग्रेज सफ़ाई कामगारों से किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे। उन्होंने इन्हें नया नाम स्वीपर दिया । इस दौर में इनसे ज़ल्लाद का काम भी लिया जाता था और मुर्दों की चीरफाड़ भी इन्हीं से कराई जाती थी । ये सारे काम वे नशे की हालत में ही किया करते थे और शासन के अधिकारी उन्हें शराब मुहैया कराते थे । कमोबेश यही स्थिति आज भी है। लेखक का यह कहना कि प्राचीनकाल से लेकर वर्तमानकाल तक इन सफ़ाई कामगार समुदाय के लोगों के साथ छल किया जाता रहा है। वर्तमान में इन भंगियों के हिन्दूकरण की ओर इशारा करते हुए वे कहते है कि आज इन्हें एक षड़यंत्र के तहत वाल्मीकि बना दिया गया है। इन भंगियों की बस्तियों में वाल्मीकि मंदिर स्थापित किये गये।  इस प्रकार वाल्मीकियों की नक़ल में इस समुदाय की दूसरी जातियों ने भी अपने-अपने सन्त ढूंढ लिये हैं ओर उन्हें अपना गुरू मानकार उनकी पूजा करने में ही अपनी सारी शक्ति लगा रहे हैं। इस तरह जो शक्ति उन्हें अपने समग्र विकास में लगानी चाहिये थी, उसे वे इन सन्तों की जयन्ती मानने में खर्च कर रहे हैं। पुस्तक आगे बताती है कि जिस धर्म के कारण उनकी यह दुर्दशा हुई है, उसी धर्म को वे पुष्ट करने में लगे हुए हैं। इन्हें दलित मुक्ति या समानता के आन्दोलनों से काई मतलब नहीं रह गया है।

वर्तमान दौर में सफ़ाई कार्यों में ठेकेदारी प्रथा, सवर्णों की घुसपैठ, आधुनिक मशीनों का प्रयोग आदि कारणों से इस समुदाय में रोजगार के संबंध में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। इसका एक प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ है कि वे अपने बच्चों को शिक्षित करने में जुट गये हैं। भाषागत कुछ कमियों के बावजूद पुस्तक नई स्थापनाए एवं नये आयाम प्रस्तुत करती है। वैसे भी वैचारिक स्थापनाओं के समक्ष ये बातें गौण हो जाती हैं। यह पुस्तक सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं, नीतिनिर्धारकों, महाविद्यालयीन छात्रों एवं आम पाठकों के लिए अत्यंत उपयोगी है ऐसा मेरा विश्वास है।

बजरंग नगर,रायपुर (छत्तीसगढ़) पिन-४९२००१

मोबाइल-०९८२७४०६५७५


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