शेष नागरिक-समाज में एक ठंडी उदासीनता,
युवा संजीव खुदशाह की कृति 'सफाई कामगार समुदाय` (राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली) को पढ़ने उपरान्त उस बाबत कुछ व्यक्त करने से पहले यह कह देना जरूरी है कि इसे एक मुकम्मल मजमून की शक्ल देकर सफ़ाई कामगार समुदाय पर बड़ी शिद्दत और मशक्कत के साथ लिखी गई यह पहली किताब है। इस वर्ग पर महात्मा गांधी जी ने सोचा, विचार भी दिये। थोड़ा अमृतलाल नागर जी ने भी लिखा। संजीव खुदशाह ने तो एक स्वतंत्र कृति ही सामने ला दी। सन्दर्भ - सामग्री सहित पुस्तक के सम्यक् अध्ययन से यह जाहिर है कि यह मेहनत दो-ढाई साल से कम की नही होगी जिसमें तमाम जगहों में घूमना और मेल-मुलाक़ातों के साथ जानकारियॉं हासिल करना शामिल है।
यह विचारणीय है कि महात्मा गांधी जैसे महानायक ने इस दिशा में सोचा और कहा भी लिखा भी। उन्होने यहॉं तक कहा कि यदि मनुष्ययोनि में पुनर्जन्म से वे आयेगें, तो इन्ही लोगों के उत्थान का काम करेगें। यह सवाल अब भी ज्यों का त्यों है कि परवर्ती लोगों ने गांधी के उन समाज-सापेक्ष सपनों को पूरा करने में कितनी ज़िम्मेदारी निभाई। गांधी का कोई सपना खा़लिस सपना नही रहा। वे पहले स्वयं करते थे, बाद में अन्य को कहते थे। फिर ऐसा क्या होता गया कि उनकी विरासतों के दावेदार उन्ही की दुहाई देते हुये उन्ही को निरन्तर विस्मृत करते गये। निम्न, निम्नतर और निम्नतम के जीवन-स्तर को उन्नत करने की योजनायें बनती है, कुछ करना दिखाया जाता है बाक़ी को भुला दिया जाता है। बराबरी से सवाल यह भी उठता है कि आखिर शेष नागरिक-समाज में एक ठंडी उदासीनता, एक सन्नाटा सा क्यों है। इसलिये है- कि कम से कम समय में आज का मनुष्य ज्य़ादा से ज्य़ादा हासिल कर लेने की अंधी दौड़ में शामिल होता जा रहा है। क्या पा लेना चाहता है, कितना पा लेना चाहता है और किस तरह पा लेना चाहता है, वह खुद नहीं जानता है। यह असहजता है जो सिऱ्फ पीछे ढकेलती है । इसी आपाधापी में नागरिकता बोध डूब रहा है। जो असमर्थ और उपेक्षित है, उसे उपेक्षा-दंश से निजात पाने के दंशीय कॉंटे को खुद निकालना होगा। आकाशीय स्वप्न देखना आसान है लेकिन आकाश तो बस दिखाई देता है, उसका वजूद होकर भी नहीं है। अतएव, आत्मनिर्भरता को अपनाने की अहम जरूरत है।
यह तयशुदा है कि जाति से कोई ब्राम्हण या शूद्र नही होता है। तय यह भी है कि कोई भी काम छोटा नही होता है। यहॉं निर्मल ग्राम योजना का उल्लेख करन जरूरी लगता है। ग्राम की जगह नगर होता, तो सफाई कामगार समुदाय के मसले का एक सहज हल मिल सकता था। यह समुदाय गांवों में तो नही के बराबर है। संजीव खुदशाह की इस कृति के आरम्भ में 'एक दृष्टि` में यह महत्वपूर्ण तथ्य उजागर किया गया है कि हर जीवन्त समाज परम्पराविहित शास्त्र के अनुशासन और प्रचलित लोक विश्वासों की समीक्षा करता हे। उसमें निहित आवश्यक उपयोगी अंश को रख कर अनुपयोगी एवं अनावश्यक हिस्से को अपने जीवन के आचार-व्यवहार से काटकर अलग करता चलता है। यानी परम्परा, प्रथा जड़ हो जाये, यह त्याज्य है। इस हेतु डॉ.बिन्देश्वर पाठक को बधाई।
संजीव खुदशाह की ''सफाई कामगार समुदाय`` पहली कृति है । श्री खुदशाह ने इसके जरिये मानव-समाज की उन्नत सभ्यता, संस्कृति की दुखती रग पर हाथ रखा है। सफाई कामगार समुदाय की उपेक्षा की पीड़ा को लोग आहिस्ता आहिस्ता ज़रूर समझेगें और इस समुदाय को सम्मान जनक स्थान मिलने की तसवीर में यह कृति चिन्हांकित रहेगी। अस्तु साहित्यिक समीक्षा का औचित्य गौड़ है।
कृति की छपाई, सफाई , गेट-अप उम्दा है। लेखक संजीव खुदशाह के प्रति शुभ कामनायें। राधाकृष्ण प्रकाशन की अपनी आला दर्जे की पहचान है । इस कृति को प्रकाशित कर मनुष्य की सामाजिकता की प्रति उपकार किया है। प्रकाशक को बधाई।
नरेन्द्रं श्रीवस्तव
(साहित्य रत्न)
ब्लाक कॉलोनी, पो. जांजगीर
जिला-जांजगीर-चांपा
(छत्तीसगढ़)
No comments:
Post a Comment
ये सामग्री आपको कैसी लगी अपनी राय अवश्य देवे, धन्यवाद