Wednesday, September 22, 2010

कंवल भारती

सफाई कामगार समुदाय सबसे उपेक्षित समाज का उपेक्षित यथार्थ

 

१९७३ में, सफाई कर्मचारियों अर्थात् मैला उठाने वाले लोगों के बारे में पहली दफा और पहली किताब मैने इलाहाबाद के बद्रीप्रसाद वालमीकानन्द (वे शोर बनारसी नाम से शायरी भी करते थे) की 'वाल्मीकि-वाल्मीकि` पढ़ी थी। वह हिन्दू दृष्टिकोण से लिखी गयी पुस्तक थी, जिसमें मुस्लिम बादशाहों के हिन्दुओं के प्रति जुल्मों की दास्तान थी और यह कि उन्होनें किस तरह मार-मार कर इस्लाम कबूलल न करने वाले राजपूतों को मेहतर बनाया था। यह सिध्दान्त मेरे गले के नीचे न तब उतरा था और न आज उतरता है।

इसके बाद भगवान दास की पुस्तक 'मै भंगी हूॅं` पढ़ी, जिसमें एक अलग ही ऐतिहासिक यथार्थ सामने रखा। १९९६ में अरूण ठाकुर और महम्मद खडस की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'नरक सफाई` नाम से आया, जिसमें अस्पृश्य में भी अस्पृश्य मेहतर समाज का एक व्यापक अध्ययन किया गया है। यह अध्ययन विशेष रूप से महाराष्टघ् राज्य के गांवो पर आधारित है। इस पुस्तक के उपसंहार ''आखिरी पड़ाव पर`` मै लेखक गण लिखते हैं कि ''जिन समस्याओं का हल ढूंढने के लिये हम चल पड़े थे, उन सभी का समाधान अभी नही हो पाया है। बल्कि कुछ नये सवाल और जुड़ गये है।``

संजीव खुदशाह ने अपने पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` (२००५) में छूटे हुए कुल सवालों के समाधान की एक कोशिश की है। वे कहानियांॅ और कविताऍं लिखते है, पर इतिहास और विचार के क्षेत्र में यह उनकी पहली पुस्तक है। संजीव ने तथ्यों को जुटाने और उनका विश्लेषण करने में वस्तुत: काफी मेहनत की है। डा. बिन्देश्वर पाठक ने इसकी भूमिका लिखी है, जो सुलभ स्वच्छता आन्दोलन के संस्थापक माने जाते है।

संजीव खुदशाह ने मेहतर के जन्म को लेकर जिने भी सिध्दान्त और धारणाऍं प्रचलित है, उन सभी की तार्किक व्याख्याऍं की है। उन्होने धार्मिक साहित्य की भी छानबीन की है और अनेक संन्तों जैसे सुदर्शन और श्वपच की कथाओं पर विस्तार से चर्चा की है, उन्होने मेहतर समुदाय को वाल्मीकि बनाने की साजिश का भी पर्दाफाश किया है, जो उनके अनुसार इस समाज का हिन्दूकरण है। उन्होने स्पष्ट किया है कि वाल्मीकि ऋषि से सफाई कामगार समाज का कोई सम्बन्ध नहीी बनता है। यद्यपि, उन्होने इस मत का खण्डन नही किया है कि मेहतर समुदाय मुस्लिम काल में अस्तित्व में आये, पर यह सवाल जरूर उठाया है कि यदि ऐसा होता, तो ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुध्द व्दारा भंगी सुणीत को धर्म-दिक्षा देने का विवरण क्यों मिलता?(पृष्ठ ४३) इसका जिक्र थेरगाथा के व्दादस निपात में मिलता है।

संजीव खुदशाह ने अपने अध्ययन को पांॅच खण्डों में विभाजित किया है, पहले और दूसरे खण्ड में उन्होने अछूतपन की उत्पत्ति के ऐतिहासिक स्रोत और सफाई कर्मी समुदाय से सम्बन्धित परिकल्पनाओं का विवेचन किया है। तीसरे खण्ड में जाति के नामकरण और कुछ नामेंा पर विचार किया है, जिसमें श्वपच, चांडाल और डोम शब्दों पर चर्चा है। यहांॅ 'जाति` का प्रयोग उन्होने अंग्रेजी के 'रेस` शब्द के अर्थ में किया है। इस खण्ड में उन्होने 'हिन्दू जाति का उत्थान एवं पतन` पुस्तक के आधार पर हिन्दू शब्द पर विचार किया है। इसके पुस्तक के लेखक रजनीकान्त शास्त्री थे, जबकि यहां 'रमाकान्त शास्त्री` दिया गया है, जो गलत है। (पृष्ठ ६५)

चौथे खण्ड में सामाजिक परिवेश और पांॅचवे खण्ड में संगठन, विकास और समाधान कथा है। सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत लेखक ने जातियों के दो गु्रप बनाये है-- '` गु्रप और '` गु्रप। उसके अनुसार '` गु्रप की जातियां वे है, जो मुसलमानों के अपने से पहले क्षत्रिय ब्राम्हण थी। वे बन्दी सैनिक लोग थे, जिन्हें गुलाम बनाया गया था और इस्लाम स्वीकार न करने के कारण उनसे पाखाना साफ करने जैसा निकृष्ट कार्य लिया गया था। इन जातियों में मेहतर, मलकाना, हलालखोर, शेख भंगी, लालबेग, शेखड़ा, मुसल्ली और खाकरूब आदि आती है। (पृष्ठ ८९-९२)

इन जातियों को पूर्व काल का क्षत्रिय-ब्राम्हण मानने से पहले लेखक को डा. आंबेडकर का वह कथन याद क्यों नही आया, जिसमें वे कहते है, ''एक ब्राम्हण या किसी भी अन्य (सवर्ण) जाति का व्यक्ति भूखों मरते भी गन्दगी का काम नही करता।`` लेखक ने इस कथन को एक अन्य प्रकरण में स्वयं उध्दरित किया है।(पृष्ठ १२१)

क्या ऐसा नही लगता कि हिन्दू समाज में मौज़ूद दलित जातियों के लोगों से ही मुसलमानों ने मैला उठाने का काम लिया हो और वे मुसलमान बन गये हो, पर मुसलमान बनने के बाद भी उनको वही गन्दा काम करते रहना पड़ा हो ? इतिहास से ऐसे भी प्रमाण मिलते है कि जब जागीरें या जमींदारियां बिकती थी, तो जमीनों और बाग-बगीचों के साथ-साथ कामगार जातियां भी बिक जाती थी और वे नये जागीरदार या जमीदार की हुकूमन के हिसाब से काम करने के लिए बाध्य होते थे। अगर जागीरदार या जमीदार मुसलमान होता था, तो वह कामगार दलित जातियों में से जो अछूत होते थे, उनमें अपने यहां पखाना साफ करने का काम भी ले सकता था। ऐसी ही मुस्लिम जागीरों में वे मुसलमान भी बन गये हो या बना दिये गये हेेां, पर वे गन्दा काम भी करने रहे हो। मै समझता कि इस दृष्टिकोण से भी इन जातियों पर विचार किया जाना चाहिए।

ग््रुप '` की जातियां, लेखक के अनुसार वे है जो अंशत: या सम्भवत: चंडाल, डोम, श्वपच आदि से डोम, डुमार, हेला, धानुक, नगाड़ची, मखीयार और बसोर आदि कहलायी। (पृष्ठ ९२) ये जातियां महाराष्टघ्, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और बंगाल में फैली हुई है। पर, लेखक का मत है कि इन जातियों का मूल सिाान पूर्वी उत्तर प्रदेश है। वह लिखता है कि अपने मूल सिाान पर इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नही होने के बावजूद वे सफाई का काम नही करती थी। इन जातियों ने पलायन करने के बाद ही सफाई का पेशा अपनाया।(पृष्ठ ९३)

लेखक ने तर्क प्रस्तुत किया है कि इन जातियों ने गरीबी और जाति की प्रताड़ना से तंग आकर उस समय पलायन किया, जब सारा देश स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजो से जूझ रहा था। लेखक के अनुसार यह समय सन १८०० के आस-पास का है। ये लोग जहां भी गये भी के रूप में गये और सूअरों को साथ लेकर गये उन्हें सैनिक छावनी, कारखाना और रेल्वे में काम मिला पर, सुअर के कारण उन्हें सम्मानजनक काम नहीं मिला, क्योंकि मुसलमान और हिन्दू कामगार दोनों ही सुअर से घृणा करते थे। लेखक के अनुसार, सहकर्मी हिन्दू और मुसलमानों ने अंग्रेज नियोक्ताओं पर दबाव दिया कि वे इनके साथ काम नही करेंगे, क्योंकि में मेहतर सदृश्य है। इनहे सफाई का काम ही दिया जाय। चूंकि अंग्रेजो को राज चलाना था, इसलिये उन्होने इन लोगों को सफाई का काम दे दिया। (पृष्ठ १०१)

लेखक के अनुसार, अंग्रेजो ने ही इन्हें नया नाम 'स्वीपर` दिया। यहां यह प्रश्न उठता है कि इन लोगों ने सफाई का काम क्यों स्वीकार किया और अपने मूल गांव वापिस क्यों नही चले गये। लेखक ने इस प्रश्न का जवाब यह दिया है कि पूर्व गांव में उनकी स्थिति ज्यादा नारकीय थी। वहां ठाकुर-ब्राम्हण उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते थे। वहां न मान सम्मान था और न आमदनी थी।(पृष्ठ १०४) भारतीय समाज का सामाजिक अध्ययन इस मत की पुष्टि करता है हम कह सकते है कि सफाई कामगारों का एक वर्ग इस आधार पर अस्तित्व में जरूर आया होगा।

पुस्तक के अंतिम खण्ड में लेखक संजीव खुदशाह ने श्री देवक ऋषि और महारज सुदर्शन की चर्चा की है और उनके नाम से सिाापित किये गये संगठनों पर विचार किया है। आगे धर्मान्तरण पर  विचार करते हुए लेखक ने उसे सकारात्मक कदम बताया है।(पृष्ठ १३४-१३६) अन्त में लेखक का समाधान है कि सफाई कामगार समुदाय विदेश से आयात नहीं हुए, बल्कि इसी समाज के अंग थे। उनकी घृणित अवस्था के लिये हमारी सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है।आधुनिकीकरण नगरीयकरण और आरक्षण को वे इस समुदाय के हित में मानते है, यहां तक कि वे सफाई कार्य में उच्च जातियॉं के लोगों के प्रवेश को भी इस समुदाय के लिये वरदान मानते है।(पृष्ठ १४१-१४३)

समग्रत: संजीव खुदशाह ने 'सफाई कामगार समुदाय` की उत्पत्ति, विकास और वर्तमान दयनीय स्थिति का एक विहंगम अवलोकन किया है। यह एक ऐसा अध्ययन है, जिसे हम परिपूर्ण या अंतिम नही कह सकते, पर उसके निष्कर्ष हमें और आगे काम करने की दिशा दे सकते है। उनका परिश्रम वस्तुत: सराहनीय है। दलित साहित्य के क्षेत्र में इस तरह के अध्ययन बहुत कम हुए है। अभी तो एक-दो जातियों  का ही इतिहास सामने आया है, बहुत सारी जातियां बाकी है, जिनके इतिहास के बारे में पौराणिक मिथकों के सिवा कुछ नही पता चलता । हम आशा कर सकते है कि इन जातियों से निकले लेखक संजीव खुदशाह से प्रेरणा लेंगे और अपने काम को अन्जाम देंगें।

 

कवल भारती

राजकीय आंबेडकर छात्रावास

सिविल लाइन्स, रोशन बाग,

रामपुर २४४९०१ (उ.प्र.)

No comments:

Post a Comment

ये सामग्री आपको कैसी लगी अपनी राय अवश्य देवे, धन्यवाद