युवा लेखक संजीव खुदशाह की खोज परक पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` को पढ़ना सफाई कामगारों के संघर्ष भरे जीवन से रूबरू होने के साथ ही इस अमानवीय त्रासदी भोगने वाले लोगों की अंत:कथा से मुठभेड़ करना भी है। आदमी ही आदमी का मैला साफ करें, केवल साफ करें वरन सर पर ढोये, यह कितना मानसिक पीड़ादायी होता है, इसकी कल्पना मात्र से ही रोये खड़े हो जाते है। बच्चे का हगा केवल माँ ही उठाती है। पिता तक उस काम से घिन करता है। ऐसे काम को पूरे समाज का मैला उठाने का काम एक वर्ग करे। अपनी संतान का गू उठाने के नाम पर ही पिता तक छि:-छि: करे, तो मैला उठाने और ढोने का काम कितना विकट हो सकता है। संजीव खुदशाह की पुस्तक पढ़ते समय दिल दिमाग संवेदनाओं से भर उठता है और इस घृणास्पद प्रथा को युगों तक जारी भारतीय समाज में कायम रखने से सर शर्म से झुक जाता है। इसका क्या ऐसी व्यवस्था कायम रखने का दम्भ भरने वालों को क्या दंड मिले। उपर से यह कि इतना जरूरी काम करने वाला वर्ग अछूतों के अछूत निम्नतर अछूत मान लिए जाएं। उनकी छाया तक से दूर भागे श्रेष्ठ वर्ग।
''सफाई कामगार समुदाय`` लिखते समय पता नही संजीव खुदशाह कितनी पीड़ा से गुजरे होगें। अपनी इस समाज-व्यवस्था और उसे कायम रखने वालों की स्मृति से कितनी बार उबकाई आई होगी उन्हे। बड़े साहस धर्य सहिष्णुता और विचार की ज़रूरत होती है ऐसी रचना करने में। और पुस्तक पढ़कर लगा कि संजीव ने साहस का काम किया है। युगों से पीढ़ियों से हमारे मानस पर यह अंकित किया जाता रहा कि सफाई कार्य, सफाई कामगारों का काम है। मैला उठाना सफाई कामगार करते है और ऐसा काम करना उनका अनिवार्य कत्तर्व्य है। वे इसी काम के लिए पैदा हुएं है। मेहतर को गाली के रूप में ग्रहण कराया गया। भारतीय समाज की त्रासदी यह रही कि यहां ''श्रम`` की कभी प्रतिष्ठा नही हुई और श्रम करने वालों को हेय समझा गया चाहे जूते बनाने वाले हो, कुम्हार हो, कृषक मजदूर हो,-छाता,ताला पतंग खिलौना आदि-आदि बनाने वाले तक सम्मान जनक स्थान प्राप्त नही कर पाए। और ''परजीवी`` ही प्रतिष्ठा पाते रहे व्यवस्था के केन्द्र में, शिखर पर, रहकर पूरी व्यवस्था पर नियम कायदे संचालित करते रहे। अभी तक हम केवल यही सोचते थे कि ब्राम्हण अछूतों से घृणा करते है। लेकिन संजीव खुदशाह ने खोज और अध्ययन के बाद यह तथ्य सामने लाया है कि अछूत भी ब्राम्हणों से उतनी ही घृणा करते है कुछ जातियों के लोग ब्राम्हण को अपवित्र मानते है। ब्राम्हण को अपवित्र मानते है। ब्राम्हण अछूतों से घृणा करते है तो यह खुद को श्रेष्ठ और पवित्र समझने के दम्भ के कारण है लेकिन अछूतों का ब्राम्हण को अपवित्र मानना पूरी समाजिक संरचना के बीच अपवित्र बना दिए गए वर्ग की सोच का परिणाम है। यह सोच एक लम्बी प्रक्रिया से पैदा हुई। संजीव खुदशाह ने काफी मेहनत से यह पुस्तक लिखी है।
पुस्तक के पांच खण्ड है और हर खण्ड में कुछ उपखण्ड है जिनमें उन विषय पर खोजपूर्ण और विद्वता पूर्ण व्याख्या है। विषय से सम्बंधित ज्यादा से ज्यादा सामग्री एकत्र करने का प्रयास स्पष्ट परिलक्षित होता है और विभिन्न मत, सहमतियों, असहमतियों का सम्मान जनक स्थान समावेश किया गया है। संजीव ने बिना राग द्वेष, लाग-लपेट और पूर्वाग्रह बिना अपने वृहत विषय को साधा है। आज के समय अछूतों पर लिखना भी जोखिम भरा काम हो गया है- कई तरह के आक्षेप और पूर्व निर्धारित आग्रह से परे हटना आसान नही है। इसलिए '' सफाई कामगार समुदाय`` पढ़ना सफाई कामगारों की स्थिती तथा अछूत मानलेने की मानसिकता और उनके कारणों की पड़ताल करती एक रचना से गुजरना है। लेखक ने लेखकीय निवेदन में कहा है- ''मै नही कह सकता कि प्रस्तुत विषय ( सफाई कामगार समुदाय से आशय है) की ओर साहित्य कारों का ध्यान क्यों नही गया। ऐसा हुआ होता तो मुझे कड़ी मेहनत नही करनी पड़ती। प्रयास भरपूर किया गया है कि इस कृति में दी गई जानकारी नकारात्मक अथवा भ्रामक नही हो`` संजीव की यह बात पुस्तक पढ़ने से सिध्द होती है। लेकिन लेखकों का ध्यान प्रस्तुत विषय पर जितना भी जाता कम ही होता। इस विषय पर नये-नये रूप से निरंतर लिखा जाना चाहिए।
लेखक ने पाठकों से निवेदन किया है कि ''इस पुस्तक के अध्ययन के दौरान 'सारा संसार एक कुटुम्ब है` का विचार करें तथा किसी पूर्वाग्रह बचें तभी इस कृति के साथ न्याय हो सकेगा एवं इसकी प्रासंगिकता को समझ पायेगें`` लेखक की यह ''प्रार्थना`` उनके अति विनय शीलता है। अगर वे ऐसी ''प्रार्थना`` नही भी करते तब भी उनकी कृति (सफाई कामगार समुदाय) पढ़ने पर किसी तरह अन्यथा विचार पैदा नही होता-संजीव ने कृति की रचना ही ऐसी की है- तथ्य परक और कुछ पूर्वाग्रहों तथा ''घृणा`` से बचते हुए। अत: ऐसी तथ्य परक सही विश्लेषण और दृष्टि वाली कृति पाठकों को संतोष देती है। निश्चित ही सफाई कामगार समुदाय कृति को एक खोजपूर्ण वैचारिक कृति के रूप् में ग्रहण किया जाएगा। सर पर मैला ढोना मानवीय सभ्यता की सबसे बड़ी विडम्बना है- यह खत्म की जा रही है। लेकिन ''अछूत`` सोचने का मन-विचार भी बदला जाना जरूरी है, तभी आगे जाएगा।
यह पुस्तक समीक्षा नही है- इसकी समीक्षा एक कठिन काम है। केवल कृति की चर्चा या जानकारी देना मेरा उद्देश्य है। मेरा मानना है कि इस विषय पर और भी लिखा जाना चाहिए- दर असल श्रम को सम्मान देने की सोच हमारे समाज में पैदा हो यह जरूरी है। इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने पूर्व में प्रयास किए गए, किए भी जा रहे है। सफाई कामगार समुदाय की आर्थिक स्थिति सुधारने इस पूंजीवादी व्यवस्था में, अपनी जरूरत पूरी करने हेतु किए गए है- लेकिन सामाजिक गैर बराबरी दूर करने के लिए समतावादी समाज की ही ज़रूरत है अन्यथा ऐसा प्रयास अपने समाजिक उत्थान के लिए किए गए कार्यों में एक और 'फूंदरा` लगा देने और उसे बार-बार बताते हुए खुद को (व्यवस्था) महिमा मंडित करने के काम ही आऐंगे।
प्रभाकर चौबे
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