Sunday, June 19, 2011

.samaj mein ek kranti lane ye kitab bahut acchi hai.

Sanjeev ji Internet par apane samaj ki information lete vakt maine aapaki google books par safai kamgar samudai kitab dekhi....mujhe bahut pasand aayi....samaj mein ek kranti lane ye kitab bahut acchi hai...mujhe aapake vichar acche lage....meri age 26 hai....mein nashik me Ozar Township ka rahene wala hoon....Ozar Township me HAL namaki mig fighter plane banane ki company hai....mere pitaji vaha par kaam karate hai...mein khud MCA last year me hoon....abhi hamara IT ka project hua....aap apane bareme kuch bataiye....sir

Sunday, January 16, 2011

I read this book "Safai Kamgar Samuday" it's very well written

Jaibhim,
I read this book "Safai Kamgar Samuday" it's very well written. I think writer had taken lots of trouble to write this book. My PhD topic is "Problems & Prospects of college students of scavenging community in Maharashtra".
With Metta,
Hemangi
PhD Scholar
Tata Institute of Social Science.

Tuesday, November 16, 2010

पुस्तक सफाई कामगार समुदाय का सार्वजनिक वितरण

पुस्तक सफाई कामगार समुदाय का सार्वजनिक वितरण

ज्ञातव्य है कि चर्चित दलित साहित्यकार संजीव खुदशाह व्दारा लिखित पुस्तक
''सफाई कामगार समुदाय`` जिसका प्रकाशन राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली
व्दारा किया गया था। विगत वर्ष इस किताब का मराठी अनुवाद प्रकाशित हुआ।
यह किताब मराठी भाषा में भी अत्यंत लोकप्रिय हुई।
पुणे शहर के मैत्रि सोशल फाउंडेशन ने इस किताब के मराठी अनुवाद का
सार्वजनिक वितरण कार्यक्रम रखा गया। दिनांक १९/९/२०१० को आयोजित इस
समारोह में अनुवादक श्री भीमराव गणवीर का सत्कार भी किया गया।
इसकार्यक्रम में मुख्य अतिथी श्री वासुदेवराव चांगरे, विशेष अतिथी श्री
परशुराम वाडेकर आर.पी.आई. , विलास वाघ सुगावा प्रकाशनए प्रियदर्शी तेलंग
डारेक्टर मानुस्की एवं शहर के गणमान्य नागरिक तथा साहित्यकार उपस्थित थे।

Yogesh Prasad
Nagpur

Wednesday, September 22, 2010

डॉं. गंगेश गुन्जन


उदास इतिहास की सधी हुई आवाज-
सफाई कामगार समुदाय
           
संसार आज नित्यप्रति मानो सिमटता-सिकुड़ता जा है।
अपने देश के भीतर का भी अधिकांश समाज इसी दौड़ में शामिल हो चुका है। ऐसे में इस प्रकार की पुस्तकें सामाजिक अध्ययन और आचार-विचार की दिशा में
, आधुनिक भारतीय समाज के मौजूदा परिवेश को समझने में काम आनेवाली है।
देश और दुनिया के अधिकांश की सामाजिक संरचना में गहरे बैठे बीमारी की तरह, आदमी की गंदगी दूसरे एक लाचार आदमी के ही द्वारा सफाई की अमानवीय व्यवस्था, इस उंची वर्तमान सभ्यता की माथे पर कलंक ही तो है, स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के इतने स्वाधीन वर्षो के बाद भी, जात-पात, स्पृश्य-अस्पृश्य के प्रति देश के लोक-समाज का मन-मिज़ाज बहुत निश्छल नही था। ना ही इस विषयक गांधी-मन का आचरण-बोध ही सर्वस्वीकृत था।
उस पथ पर अग्रसर और बहुत दूर तक आगे निकल आये सामाजिक समरसता और न्याय की इस यात्रा में सुलभ-आंदोलन का देशव्यापी वातावरण बन सका और इसने, इस जातीय समाज में आत्मसम्मान की जो पत्यक्ष-परोक्ष चेतना और दृष्टि पैदा की, यथार्थवादी वैकल्पिक प्रयोग और उपाय सोचे-किये, उसकी प्रेरणा का रंग भी इस बहुत जरूरी अत: मूल्यवान किताब में परिलक्षित होता है। इसीलिए आकस्मिक नहीं है कि प्रकाशक ने इस पुस्तक की भूमिका सुलभ- आंदोलन के प्रणेता-संस्थापक डॉ विन्देश्वर पाठक से लिखवाई है।
भेदभाव आधारित अन्यायी जातिप्रथा जैसे मानव विरोधी चलन का परिष्कार-संस्कार करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम के प्राचीन मौलिक भारतीय संकल्प को व्यवहार में पुनरूज्जीवित करने के मार्ग को नयी चिन्ता और आधुनिक समझ के साथ प्रशस्त करना अपरिहार्य है। सफाई कामगार समुदाय के ेलेखक ने इस मुद्दे को समझा है। लेखक की इसी समझ ने पुस्तक की उपयोगिता- आयु बहुत बढ़ा ली है।
बंगाल के भक्त कवि चण्डीदास ने कहा : सबार उपर मानुष सत्त ताहर उपर किच्छु नय। समस्त मनुष्यता के नीरोग भविष्य के लिये, इस ग्लोबल होते हुए विश्व समुदाय को, यह पाठ स्मरण करना, विकास के इसी कदम पर, जरूरी है।
''इस समाज के वर्ग ए में आनेवाले लोग आधा इस्लाम तथा आधा हिन्दू धर्म को मानते थे। इतना तो तय है कि इस पेशे में आनेवाले लोग विदेश से नही लाये गये बल्कि यहीं की उच्च जातियों से इनकी उत्पत्ति हुई।खासकर क्षत्रिय और ब्राम्हण जातियांे से।`` -इसी पुस्तक से पृ. ५
''किसी समय डोम वर्ग की जातियां श्रेष्ठ समझी जाती थी वे भी इस पेशे में आईं।`` जैसी जानकारियों वाली यह पुस्तक अपनी समस्तता में भले नही, किन्तु समाज के अधिकतम मानस को अपने दायरे में ला सकने में समर्थ हुई है। सुबुध्द-प्रबुघ्द पाठक समेत उनके लिए भी जो अल्प शिक्षित है। इस प्रकार मुझे तो महसूस हुआ है कि यह जो शोध का विषय है, या अधिक से अधिक कभी इतिहास के दायरे में भी ले जाया जा सकता है, अपने स्थापत्य में यह पुस्तक पढ़ते हुए मौलिक साहित्य लगती चलती है। कथानक की तरह।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर किस विपत्ति या समस्या के कारण इन्हे यह गंदा और घृणित पेशा अपनाना पड़ा ?
मुझे तो यह भी लगता है कि इसके कई अंश यदि घोर अशिक्षित लोगों को भी रेडियो-पाठ की शैली में सुनाया जाय तो उन्हे इस पुस्तक का विषय और उनके लिए इसकी उपयोगिता क्या है इस बात को समझने में कहीं से भी कठिनाई नही होगी। पढ़ना इसकी उपयोगिता है, लेकिन सुन-सुनाकर भी इस किताब की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस पुस्तक में अपेक्षाकृत गौण है। इनकी उत्पत्ति, इतिहास एवं विकास पर विवेचना पर अधिक ध्यान दिया गया है। वैसे विषय की मांग भी है।
एक समय इस देश के लेखन में भोगे हुए यथार्थ के लिखने का बड़ा बोलबाला हुआ था, जिसकी भी एक ईमानदार उपस्थिति इस किताब में दीखती है। लेखक ने वर्षो इस समुदाय के बीच रहकर इनकी जीवन-स्थितियों की गहराई में जाकर अध्ययन किया है और मर्म के साथ समझा है तब लिखा है, तथ्यों को विश्वसनीयता से रखा है। प्रतिपाद्य विषय से लेखक की यह गहरी सम्बद्धता-संलग्नता पाठक के लिए भी पढ़ना सहज करती है।
इनकी प्रतिपादन-शैली में इसीलिये, इतिहास और तथ्यों की ताकत तो है लेकिन समाज मंे किसी वर्ग या वर्ग विशेष के विरुद्ध किसी प्रकार की गैर जरूरी आक्रमकता नहीं। ऐसी ज्वलंत समाज-सांस्कृतिक समस्याओं-विषयांे के विमर्श में आज प्रमुखता है - आक्रामक पक्षधरता और प्रत्याक्रमक विरोध। तिखे तेवरों के इस द्वेषी परिवेश मंे मूल मानवीय सहिष्णुता का गुण लगभग गायब ही हैं, और वर्ग -मित्र तथा वर्ग-शत्रु का एक नया ही आवतार हुआ लगता है, जिसने हमारी वैचारिक अर्हता का अपहरण कर लिया है। और वह अपहरण इतना देखार भी नहीं कि समाज इसको तत्काल पहचान सके और तब अपनी-अपनी बुद्धि, युक्ति के साथ इसे ग्रहण करे या खारिज कर सके। संवादों की इस आवाजाही मंे पारस्परिक क्रोध, अस्वीकार और संभव सीमा तक प्रतिशोधी मानस ही तैयार कर डाला गया है। मेरे विचार मंे यह इस संदर्भ का यह एक नया ही रोग हो रहा है साधारणत: प्रचलित आजकी व्यवहार शैली, सामाकजि सामस्या के इस अहम और नाजुक मामले को अपने-अपने दायर में ही परखने की हिमायत करती है। यह दुर्भाग्यपुर्ण ही है कि इतनी बड़ी बात को सत्ता और विपक्ष के अंदाज में हल्के-फुल्के तेवर की तरह ले लिया जाता है। एक संदेहास्पद दरार और दूरी तैयार कर इस संवेदनशील विषय पर व्यापक विमर्श नहीं होकर अधिकतर संकुचित चर्चा-प्रतिचर्चा का ही रूप दे दिया जाता है। जिससे परस्पर आपसी समझ और संवाद प्रदूषण का शिकार हो जाता है।
सफाई कामगार समुदाय पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि लेखक ने इस समकालीन ग्रंथि को समझा है। और अपनी इस प्रगतिशील लौकिक समझ के दायरे में ही इस विमर्श को रखकर देने की जो युक्ति की है वह सराहनीय है। पुस्तक में बरती गई अपने वास्तविक वय से बहुत बढ़कर लेखक द्वारा बरता गया संयम और विवेकी शालीनता दुर्लभ है। पाठक का ध्यान अवश्य जाएगा। आजकी इस डिजिटल-मुठ्ठी मंे समाती जाती हुई यह पूरी दुनियां में, जिसमें कुछ खतरनाक सामाजिक विषमताओं वाला अपना देश भारत भी है, ऐसे सभी विषय अप्रासंगिक होने के लिए तैयार हैं। प्राय: दिनकर जी ने या हंसकुमार तिवारी जी ने या किन्हीं ऐसे ही विचारवान कवि जी ने यह पंक्ति कही थी - 'दुनियां फूस बटोर चुकी है, मैं दो चिनगारी दे दूंगा।` सो वह दो चिनगारी इस तरह की तमाम सामाजिक कोढ़ों वाले महलों का लंका दहन करने को तैयार है। संजीव जी का यह अध्ययन इतर रुची रखने वाले पाठाकों का भी ध्यान खींचेगे।
किसी की भावना आहत किये बिना, पुस्तक, इस कलंकमयी परंपरा पर मौजूदा समाज को आत्मविश्लेषण के लिये प्रेरित करती है। आधुनिक सभ्यता के समक्ष जलता हुआ यह सवाल सामने है! कि मनुष्य को जानवर से भी बदतर, इस नारकीय जीवन स्थिति तक पहुंचाने के लिये कौन उत्तरदायी है? अतीत की इस अनीति में हमारा वर्तमान अर्थात्-समाज कहां तक दोषी है?
इस शोध प्रबन्ध में, उस सिद्धान्त से कुछ भिन्न बल्कि विपरीत स्थापना भी दी गई है जिसके अनुसार भंगी-समुदाय मुसलमानों की देन माने और बतलाये जाते रहे है। भूमिका लेखक डॉ पाठक भी सहमत है जो प्रस्तुत शोध की मान्यता है कि मानव सभ्यता की इस सबसे कुरूप विडंबना में हिन्दू भी पूर्णत: निर्दोष नहीं है, जिसमें मनुष्य के मल-मूत्र अपने सिर, कंधे पर ढोने को अभिशप्त है।
सभ्यता की यह कैसी इक्कीसवीं सदी और उपलब्धियों का कैसा महाशिखर तैयार किया है विश्व के मौजूदा ज्ञान-विज्ञान ने, जिसका सारा पराभव सिर्फ कुछ एक वर्ग के मनुष्यों के लिये ही रख दिया गया है। समाज की कितनी बड़ी आबादी युगऱ्युग से आज भी ज़ह़ालत ज़ालालत और दरिद्रता भरी ज़िन्दगी जीने का मानो श्राप भोग रही है।
तथाकथित वैज्ञानिक उत्कर्षो से जगमग इस वैभवपूर्ण महान युग में जवाबदेह राजनीति, धर्म, समाज की परम्परा खुद हम, यह सभ्य समाज है? कौन? मात्र अपने ही देश नही, विश्व के अन्य देशों के सामने भी विश्व मानवता के सम्मुख ही आज यह यक्ष-प्रश्न है।
इस समुदाय की उत्पत्ति सम्बन्धी कुल तीन परिकल्पनाएं लेखक ने की है। जाहिर है इसके बारे में उचित अपेक्षित तर्क भी रखे है।
समुदाय को दो आधारों पर रखकर, वर्गीकरण भी उपयुक्त लगता है। सफाई पेशा कोई एक जाति नही करती है, इसमें कई जातियां लगी हुई है।
अत: स्वाभाविक ही इस पुस्तक में उसके सूत्र देखने परखने की गंभीर कोशिश है कि आखिर इस पेशे से लोग जुड़े क्यों? इससे पहले इनकी जीविका-पेशा क्या थी? अपने नजरिये से इस पुस्तक में उत्तर ढूंढ़ने की गहरी चेष्टा है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अर्थ-अवधारणा को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विचार करने का आग्रह है लेखक का। एक उदार स्पष्टोक्ति है लेखक की ''इसकी प्रासंगिकता पर विचार क्रम में आप सोचें क्या बेहतर हो सकता है? यदि विसंगति है तो समाधान क्या है ?`` अर्थात हमें बतलाएं, मुझे बतलायें।
विषय के लिये जरूरी बिन्दुओं पर गंभीर मंथन के फलस्वरूप इसमें आई गुणवत्ता स्पष्ट परिलक्षित है। तथ्यान्वेषी विधि के सटीक उपयोग के सहारे यहां संदर्भो और इतिहास के वैसे भी प्रामाणिक प्रसंग प्रस्तुत किये गये है जो इस विषयक जानकारी में वर्तमान पीढ़ी के लिये उपयोगी योगदान बनेंगे । जनसाधारण के अनुभव और ज्ञान के लिये भी यह बड़े काम की होगी।
(क) जनसाधारण को शायद ही यह पता है कि जिस तरह ब्राम्हण अछूत से घृणा-भाव रखते और दूरी बरतते थे, उसी प्रकार अछूत भी ब्राम्हणों से घृणा करते थे। उनमें से कुछ जातियां ब्राम्हण को अपवित्र मानती है।
(ख) ''आज भी गांव में एक पैरियाह(अछूत) ब्राम्हणों की गली से नहीं गुजर सकता, यद्यपि शहरों में  अब कोई उसे ब्राम्हणों के घर के पास से गुजरने से नहीं रोकता। किन्तु दूसरी ओर एक पैरियाह किसी भी स्थिति में एक ब्राम्हण को अपनी झोपड़ियों के बीच से नहीं गुजरने देता, उसका पक्का विश्वास है कि वह उनके विनाश का कारण होगा।`` श्री अब्बे दुब्याव, पृ सं. ३४
(ग) जैसे सूचना के स्तर पर यह जानकारी हमें चौकाती है कि ''बार नवागढ़ धमतरी के निकट वहां के आदिवासी वर्ष में एक बार ब्राम्हण की बलि देते थे`` श्री चमन हुमने ने लेखक को बतलाया था, पृ. सं. ३४
(घ) ये जातियां (तंजौर जिले की अछूत जातियॉं) किसी ब्राम्हण के उनके मुहल्ले में प्रवेश करने का बड़ा विरोध करती है। उनका विश्वास है कि इससे उनकी बड़ी हानि होगी। श्री हेमिंग्जवे पृ.सं. ३४
(च) ग्रुप बी की भंगी जातियां अपने संस्कार (विवाह मृत्यु आदि) ब्राम्हणों से नही करवाती, बल्की इनके अपने पुरोहित होते थे जो घर के बुजुर्ग या प्रबुध्द व्यक्ति होते थे। वे इन संस्कारों में ब्राम्हण को बुलाना महाविनाश का कारण समझते थे। पृ.सं. ३५
चमार, चमारी, लैरवा, माली, जाटव, मोची, रेगर नोना रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी, सूर्यरामनामी, अहिरवार, चमार, भंगन, रैदास आदि ब्राम्हण को पुरोहित नही मानते और न ही इन पर श्रद्धा रखते है। पृ. वही
मैसूर में हसन जिले के निवासी होलियरों के बारे में जी.एस.एफ. मेकेन्सी ने लिखा है कि ''सामान्य रूप से जो ब्राम्हण किसी होलियर के हाथ से कुछ भी ग्रहण करने से इन्कार करते है इसका यही कारण बताते है।``
दूसरी ओर यह जानकारी रोचक है कि....''किन्तु फिर भी ब्राम्हण इसे अपने लिये बड़े सौभाग्य की बात समझते है यदि वे बिना अपमानित हुए होलिगिरी में से गुजर जायं। होलियरों को इस पर बड़ी आपत्ति है। यदि एक ब्राम्हण उनके मुहल्ले में जबर्दस्ती घुसे, तो वे सारे के सारे इकठ्ठे बाहर आकर उसे जुतिया देते है और कहा जाता है कि पहले वे उसे जान से भी मार डालते थे। दूसरी जातियों के लोग दरवाजे तक आ सकते है किन्तु घर में नही घुस सकते। ऐसा होने से होलियर पर दुर्भाग्य बरस पड़ेगा।`` यह अंधविश्वास बहुत कुछ जीवित है अभी।
यह जानना बड़ा दिलचस्प लगता है कि:
''उड़ीसा की कुंभी पटीया जाति के लोग, सब का छुआ खा सकते है किन्तु ब्राम्हण, राजा, नाई धेाबी उनके लिये अस्पृश्य है।`` भारत वर्ष में जाति भेद पृ.सं. १०१ द्वारा
जबकि उपर्युक्त चारो में प्रथम दो का स्थान तो सत्ता और शासक का रहा है।
(छ) मद्रास प्रान्त में कापू जाति की संख्या सबसे अधिक है कापुओं की मेट्लय शाखा अत्यन्त ब्राम्हण संद्वेषी है। पृ.सं. ३६
प्रश्न है कि परस्पर यह विरोध और घृणा क्यों है दोनो में ?
यह केवल राजनैतिक तो नही लगता। धार्मिक, लोकाचार आदि के नाम पर शास्त्रों का गलत प्रयोग जो पिछले कई दशकों से उच्च जातियों का मनुवादी प्रवृत्ति के नाम से समाज और राजनीतिक विचार धारा का केन्द्रीय विमर्श बन गया है-तथा अंधविश्वास, ज्यादा महत्वपूर्ण कारण लगते है। क्योकि ये ही स्पृश्य-अस्पृश्यक की मान्यतायें समय के साथ, स्वभाव संस्कार में परिणत होती चली गई।
इस पूरे विषय को अपेक्षित समग्रता और तर्क संगत संाचे में रखने की लेखकीय दृष्टि का आभास इस पुस्तक के प्रारूप को देखने से लगता है।
इसके पांच खण्ड है। जिसमें विभिन्न विवेचना के बिन्दु शीर्षक आधारित है। इसमें इस पूरे परिप्रेक्ष्य को शोधपरक गहराई से विवेचित करने का उल्लेखनीय कार्य किया गया है, ऐसा आभास होता है इसमें कोई संदेह नही। लेखक की यह भी विशेषता लगती है कि भारत देश मे इतने गहन और संवेदनशील विषय पर, पूर्वाग्रहमुक्त दृष्टि से लगभग नीर-क्षीर विवेकी कर्तव्य के साथ विवेचना की गई है। सफाई कामगार समुदाय की अतिप्राचीन सामाजिक परिस्थितियों का अद्यतन अध्ययन किया गया है। इतिहास के कालक्रम में, उनकी वर्तमान सामाजार्थिक दशा, समाज-संास्कृतिक   स्वरूप, लौकिक धार्मिक मान्यतायें, जीवनयापन में व्याप्त हीनग्रन्थि किन्तु प्रतिशोध से भरी बेचैनी और हताशा का भाव लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में पनप रही किंचित नयी समझ और यत्किंचित ही सही परन्तु युगीन लोकतांत्रिक-अधिकार बोध के साथ, अपनी जीवन पद्धति से छुटकारे की प्रवृत्ति और ललक के साथ, विश्वभर में उठती मानवाधिकार की आवाजों से परिचित होते चलने के साथ ही देश के लोकतंत्र में मिले अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में आ रही जागरूकता, ये कुछ ऐसे लक्षण है जिनसे, शिक्षा के प्रति इच्छा और पेट-पालन के लिये सम्मान से भरे आर्थिक-विकल्प की बेचैनी, इनमें आ चुकी है। चेतना से भरे दिशा-बोध से अब ये लैस हो रहे है। और इस किताब में संस्थागत और संगठनों से जुड़ी तमाम जो सूचनाएं दी गई है, उनके मार्फत यह भी सहज ही पता चलता है कि गुणवत्ता भरे जीवनऱ्यापन के लिए संविधान में प्रदत्त अधिकार, समाज और संगठनों-संस्थाओं के ऊर्जा-स्रोज में इस समाज का आत्मसम्मान पूर्ण जीवनयापन का भविष्य मौजूद है जिसे इन्हे विधिवत आकार-प्रकार देना है। अर्थात् यह वर्ग और समाज शिक्षित-प्रशिक्षित हो चुका है। अनुपात भले अभी बहुत संतोषजनक और संतुलित न हो। जहां तक इस पुस्तक की बात है, इसमें इन तथ्यों की रोशनी में अध्ययन-अनुशीलन का जिम्मेदारी भरा प्रयास किया गया है। यह ग्रंथ अपने विषय का एक उपयोगी दस्तावेज बनेगा, ऐसा आभास सहज ही होता है।
०५.०९.२००७ शिक्षक दिवस
डॉ. गंगेश गुंजन
७४-डी, कंचन जंगा अपार्टमेंट,
 सेक्टर -५३, नोयडा-२०१३०१
मोबाईल ०९८९९४६४५७६

कंवल भारती

सफाई कामगार समुदाय सबसे उपेक्षित समाज का उपेक्षित यथार्थ

 

१९७३ में, सफाई कर्मचारियों अर्थात् मैला उठाने वाले लोगों के बारे में पहली दफा और पहली किताब मैने इलाहाबाद के बद्रीप्रसाद वालमीकानन्द (वे शोर बनारसी नाम से शायरी भी करते थे) की 'वाल्मीकि-वाल्मीकि` पढ़ी थी। वह हिन्दू दृष्टिकोण से लिखी गयी पुस्तक थी, जिसमें मुस्लिम बादशाहों के हिन्दुओं के प्रति जुल्मों की दास्तान थी और यह कि उन्होनें किस तरह मार-मार कर इस्लाम कबूलल न करने वाले राजपूतों को मेहतर बनाया था। यह सिध्दान्त मेरे गले के नीचे न तब उतरा था और न आज उतरता है।

इसके बाद भगवान दास की पुस्तक 'मै भंगी हूॅं` पढ़ी, जिसमें एक अलग ही ऐतिहासिक यथार्थ सामने रखा। १९९६ में अरूण ठाकुर और महम्मद खडस की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद 'नरक सफाई` नाम से आया, जिसमें अस्पृश्य में भी अस्पृश्य मेहतर समाज का एक व्यापक अध्ययन किया गया है। यह अध्ययन विशेष रूप से महाराष्टघ् राज्य के गांवो पर आधारित है। इस पुस्तक के उपसंहार ''आखिरी पड़ाव पर`` मै लेखक गण लिखते हैं कि ''जिन समस्याओं का हल ढूंढने के लिये हम चल पड़े थे, उन सभी का समाधान अभी नही हो पाया है। बल्कि कुछ नये सवाल और जुड़ गये है।``

संजीव खुदशाह ने अपने पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` (२००५) में छूटे हुए कुल सवालों के समाधान की एक कोशिश की है। वे कहानियांॅ और कविताऍं लिखते है, पर इतिहास और विचार के क्षेत्र में यह उनकी पहली पुस्तक है। संजीव ने तथ्यों को जुटाने और उनका विश्लेषण करने में वस्तुत: काफी मेहनत की है। डा. बिन्देश्वर पाठक ने इसकी भूमिका लिखी है, जो सुलभ स्वच्छता आन्दोलन के संस्थापक माने जाते है।

संजीव खुदशाह ने मेहतर के जन्म को लेकर जिने भी सिध्दान्त और धारणाऍं प्रचलित है, उन सभी की तार्किक व्याख्याऍं की है। उन्होने धार्मिक साहित्य की भी छानबीन की है और अनेक संन्तों जैसे सुदर्शन और श्वपच की कथाओं पर विस्तार से चर्चा की है, उन्होने मेहतर समुदाय को वाल्मीकि बनाने की साजिश का भी पर्दाफाश किया है, जो उनके अनुसार इस समाज का हिन्दूकरण है। उन्होने स्पष्ट किया है कि वाल्मीकि ऋषि से सफाई कामगार समाज का कोई सम्बन्ध नहीी बनता है। यद्यपि, उन्होने इस मत का खण्डन नही किया है कि मेहतर समुदाय मुस्लिम काल में अस्तित्व में आये, पर यह सवाल जरूर उठाया है कि यदि ऐसा होता, तो ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुध्द व्दारा भंगी सुणीत को धर्म-दिक्षा देने का विवरण क्यों मिलता?(पृष्ठ ४३) इसका जिक्र थेरगाथा के व्दादस निपात में मिलता है।

संजीव खुदशाह ने अपने अध्ययन को पांॅच खण्डों में विभाजित किया है, पहले और दूसरे खण्ड में उन्होने अछूतपन की उत्पत्ति के ऐतिहासिक स्रोत और सफाई कर्मी समुदाय से सम्बन्धित परिकल्पनाओं का विवेचन किया है। तीसरे खण्ड में जाति के नामकरण और कुछ नामेंा पर विचार किया है, जिसमें श्वपच, चांडाल और डोम शब्दों पर चर्चा है। यहांॅ 'जाति` का प्रयोग उन्होने अंग्रेजी के 'रेस` शब्द के अर्थ में किया है। इस खण्ड में उन्होने 'हिन्दू जाति का उत्थान एवं पतन` पुस्तक के आधार पर हिन्दू शब्द पर विचार किया है। इसके पुस्तक के लेखक रजनीकान्त शास्त्री थे, जबकि यहां 'रमाकान्त शास्त्री` दिया गया है, जो गलत है। (पृष्ठ ६५)

चौथे खण्ड में सामाजिक परिवेश और पांॅचवे खण्ड में संगठन, विकास और समाधान कथा है। सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत लेखक ने जातियों के दो गु्रप बनाये है-- '` गु्रप और '` गु्रप। उसके अनुसार '` गु्रप की जातियां वे है, जो मुसलमानों के अपने से पहले क्षत्रिय ब्राम्हण थी। वे बन्दी सैनिक लोग थे, जिन्हें गुलाम बनाया गया था और इस्लाम स्वीकार न करने के कारण उनसे पाखाना साफ करने जैसा निकृष्ट कार्य लिया गया था। इन जातियों में मेहतर, मलकाना, हलालखोर, शेख भंगी, लालबेग, शेखड़ा, मुसल्ली और खाकरूब आदि आती है। (पृष्ठ ८९-९२)

इन जातियों को पूर्व काल का क्षत्रिय-ब्राम्हण मानने से पहले लेखक को डा. आंबेडकर का वह कथन याद क्यों नही आया, जिसमें वे कहते है, ''एक ब्राम्हण या किसी भी अन्य (सवर्ण) जाति का व्यक्ति भूखों मरते भी गन्दगी का काम नही करता।`` लेखक ने इस कथन को एक अन्य प्रकरण में स्वयं उध्दरित किया है।(पृष्ठ १२१)

क्या ऐसा नही लगता कि हिन्दू समाज में मौज़ूद दलित जातियों के लोगों से ही मुसलमानों ने मैला उठाने का काम लिया हो और वे मुसलमान बन गये हो, पर मुसलमान बनने के बाद भी उनको वही गन्दा काम करते रहना पड़ा हो ? इतिहास से ऐसे भी प्रमाण मिलते है कि जब जागीरें या जमींदारियां बिकती थी, तो जमीनों और बाग-बगीचों के साथ-साथ कामगार जातियां भी बिक जाती थी और वे नये जागीरदार या जमीदार की हुकूमन के हिसाब से काम करने के लिए बाध्य होते थे। अगर जागीरदार या जमीदार मुसलमान होता था, तो वह कामगार दलित जातियों में से जो अछूत होते थे, उनमें अपने यहां पखाना साफ करने का काम भी ले सकता था। ऐसी ही मुस्लिम जागीरों में वे मुसलमान भी बन गये हो या बना दिये गये हेेां, पर वे गन्दा काम भी करने रहे हो। मै समझता कि इस दृष्टिकोण से भी इन जातियों पर विचार किया जाना चाहिए।

ग््रुप '` की जातियां, लेखक के अनुसार वे है जो अंशत: या सम्भवत: चंडाल, डोम, श्वपच आदि से डोम, डुमार, हेला, धानुक, नगाड़ची, मखीयार और बसोर आदि कहलायी। (पृष्ठ ९२) ये जातियां महाराष्टघ्, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और बंगाल में फैली हुई है। पर, लेखक का मत है कि इन जातियों का मूल सिाान पूर्वी उत्तर प्रदेश है। वह लिखता है कि अपने मूल सिाान पर इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नही होने के बावजूद वे सफाई का काम नही करती थी। इन जातियों ने पलायन करने के बाद ही सफाई का पेशा अपनाया।(पृष्ठ ९३)

लेखक ने तर्क प्रस्तुत किया है कि इन जातियों ने गरीबी और जाति की प्रताड़ना से तंग आकर उस समय पलायन किया, जब सारा देश स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजो से जूझ रहा था। लेखक के अनुसार यह समय सन १८०० के आस-पास का है। ये लोग जहां भी गये भी के रूप में गये और सूअरों को साथ लेकर गये उन्हें सैनिक छावनी, कारखाना और रेल्वे में काम मिला पर, सुअर के कारण उन्हें सम्मानजनक काम नहीं मिला, क्योंकि मुसलमान और हिन्दू कामगार दोनों ही सुअर से घृणा करते थे। लेखक के अनुसार, सहकर्मी हिन्दू और मुसलमानों ने अंग्रेज नियोक्ताओं पर दबाव दिया कि वे इनके साथ काम नही करेंगे, क्योंकि में मेहतर सदृश्य है। इनहे सफाई का काम ही दिया जाय। चूंकि अंग्रेजो को राज चलाना था, इसलिये उन्होने इन लोगों को सफाई का काम दे दिया। (पृष्ठ १०१)

लेखक के अनुसार, अंग्रेजो ने ही इन्हें नया नाम 'स्वीपर` दिया। यहां यह प्रश्न उठता है कि इन लोगों ने सफाई का काम क्यों स्वीकार किया और अपने मूल गांव वापिस क्यों नही चले गये। लेखक ने इस प्रश्न का जवाब यह दिया है कि पूर्व गांव में उनकी स्थिति ज्यादा नारकीय थी। वहां ठाकुर-ब्राम्हण उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते थे। वहां न मान सम्मान था और न आमदनी थी।(पृष्ठ १०४) भारतीय समाज का सामाजिक अध्ययन इस मत की पुष्टि करता है हम कह सकते है कि सफाई कामगारों का एक वर्ग इस आधार पर अस्तित्व में जरूर आया होगा।

पुस्तक के अंतिम खण्ड में लेखक संजीव खुदशाह ने श्री देवक ऋषि और महारज सुदर्शन की चर्चा की है और उनके नाम से सिाापित किये गये संगठनों पर विचार किया है। आगे धर्मान्तरण पर  विचार करते हुए लेखक ने उसे सकारात्मक कदम बताया है।(पृष्ठ १३४-१३६) अन्त में लेखक का समाधान है कि सफाई कामगार समुदाय विदेश से आयात नहीं हुए, बल्कि इसी समाज के अंग थे। उनकी घृणित अवस्था के लिये हमारी सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है।आधुनिकीकरण नगरीयकरण और आरक्षण को वे इस समुदाय के हित में मानते है, यहां तक कि वे सफाई कार्य में उच्च जातियॉं के लोगों के प्रवेश को भी इस समुदाय के लिये वरदान मानते है।(पृष्ठ १४१-१४३)

समग्रत: संजीव खुदशाह ने 'सफाई कामगार समुदाय` की उत्पत्ति, विकास और वर्तमान दयनीय स्थिति का एक विहंगम अवलोकन किया है। यह एक ऐसा अध्ययन है, जिसे हम परिपूर्ण या अंतिम नही कह सकते, पर उसके निष्कर्ष हमें और आगे काम करने की दिशा दे सकते है। उनका परिश्रम वस्तुत: सराहनीय है। दलित साहित्य के क्षेत्र में इस तरह के अध्ययन बहुत कम हुए है। अभी तो एक-दो जातियों  का ही इतिहास सामने आया है, बहुत सारी जातियां बाकी है, जिनके इतिहास के बारे में पौराणिक मिथकों के सिवा कुछ नही पता चलता । हम आशा कर सकते है कि इन जातियों से निकले लेखक संजीव खुदशाह से प्रेरणा लेंगे और अपने काम को अन्जाम देंगें।

 

कवल भारती

राजकीय आंबेडकर छात्रावास

सिविल लाइन्स, रोशन बाग,

रामपुर २४४९०१ (उ.प्र.)

आलोक कुमार सातपुते

नयी स्थापनाओं का दस्तावेज : सफाई कामगार समुदाय

 

पिछले दिनों संजीव खुदशाह द्वारा लिखित पुस्तक ''सफ़ाई कामगार समुदाय`` पढ़ी। राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि. द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए सफ़ाई कामगारों की ऐतिहासिक, मानववैज्ञानिक, भाषावैज्ञानिक एवम् समाजशास्त्रीय व्याख्या की है और इन आधारों पर नयी स्थापनाएँ भी दी हैं। संभवत: हिन्दी भाषा की अपनी तरह की इस पहली पुस्तक में लेखक ने शुरूआती वक्तव्य में ही अपने विचार स्पष्ट कर दिये हैं। लेखक का यह कथन कि हमारे यहाँ भिखारियों को भीख तो दे दी जाती है, पर मजदूरों को उनके श्रम की मजदूरी देने मे आनाकानी की जाती है। यहाँ अतिथि की आवभगत उसकी जाति के आधार पर की जाती है । हर व्यक्ति की योग्यता पर उसकी जाति हावी है । हम गर्व के साथ अपनी महान् सभ्यता का ढिंढोरा पीटते हैं, तो क्या इन सभी मानसिकताओं को अपनी सभ्यता का पिरामिड मान लें ?

संजीव खुदशाह ने वेदों से लेकर वर्तमान सन्दर्भों तक की गहरी पड़ताल की है और नयी स्थापनाओं को स्थापित करने का सद्प्रयास किया है । उनके अनुसार सवर्णों ने इस बात का पूरा ख्य़ाल रखा कि शूद्र के अन्तर्गत आने वाली जातियों में एकता न हो। इस हेतु उन्होंने ऐसे ही ग्रंथों की रचना कर उन्हें जन-जन तक पहुँंचाने का अभियान चलाया और वे इनके बीच में फूट डालने में क़ामयाब भी रहे।  संभवत: यही कारण रहा कि यहाँ हर जाति अपने आपको दूसरी जाति से श्रेष्ठ समझने लगी और सवर्णों की वफ़ादारी में प्रथम आने की होड़ में लगी रही। सवर्णों का यह भी प्रयास रहता कि दीगर जातियाँ उनसे किसी भी रूप में आगे न बढ़ पायें, इस हेतु वे साज़िश रचते रहते थे ।

लेखक ने सफ़ाई कामगार समुदाय के अन्तर्गत आने वाली जातियों को अवर्ण माना है। उनका कहना है कि अवर्ण, सवर्ण का विपरीत शब्द है  आमतौर पर सवर्ण में ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य ही माने जाते हैं। किन्तु शाब्दिक अर्थ से देखें तो अवर्ण का अर्थ जो चारों वर्णों के अन्तर्गत नहीं आते हैं। ऐसे में अछूत या अतिशूद्र इन चतुर्वर्णो से बाहर की जातियाँ हैं । नारद स्मृति के सन्दर्भों का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि एक क्षत्रिय, एक वैश्य तथा एक शूद्र, क्षत्रिय का दास हो सकता था। एक वैश्य और एक शूद्र, वैश्य का दास हो सकता था, किन्तु शूद्र का दास केवल शूद्र ही हो सकता था । अर्थात् यहाँ पर ब्राह्मण भी दास होने की सम्भावना से मुक्त नहीं था और दासों से सफ़ाई का कार्य लिया जाता था । इससे यह सिद्ध होता है कि गन्दे पेशे से लगना, छुआछूत का कारण नहीं रहा होगा। उस समय छुआछूत का कारण, इन जातियों द्वारा गौमांस का सेवन करना ही रहा होगा, क्योंकि उस समय गाय को पवित्र माना जाता था और गौमांस का सेवन, पाप बन गया था। वर्तमान सन्दर्भों में यह पेशा संसार के सभी मानव समाज में है, लेकिन उनके बीच अछूतपन की भावना नहीं है।

इस पुस्तक का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि क्या अछूत भी ब्राम्हण से घृणा करते हैं? इस में सामाजिक शोधों द्वारा लेखक ने यह साबित किया है कि अछूत जातियों में से कई जातियाँ ब्राम्हणों से भी घृणा करती रही हैं। कुछ जातियों में यह मान्यता है कि यदि ब्राम्हण उनके घरों के बीच से गुज़रेगा तो वहाँ महाविनाश हो जायेगा। उड़ीसा के कुम्भीपटिया जातियों के लिये ब्राम्हण अछूत है। इसी तरह मद्रास प्रान्त की कापू जाति घोर ब्राम्हण विरोधी है। पुस्तक से यह जानकारी मिलती है कि भंगी का शाब्दिक अर्थ भंग करने वाला होता है अत: हो सकता है कि ये आर्यों के धार्मिक संस्कारों को भंग करते रहे हों या हो सकता है कि, प्राचीनकाल में गांव और शहरों से दण्डस्वरूप तड़ीपार किये गये लोग आगे चलकर गांव से बाहर ही बसने लगे और जीविका चलाने के लिये सफ़ाई का कार्य करते रहे हों।

वेदो, पुराणों और स्मृतियों में तो जाति तथ्यों को एकदम उलझाकर रख दिया गया है। जैसे ब्राम्हण पिता और वैश्य माता की सन्तान को कुम्हार बताया गया है जबकि यह तथ्य गल़त है । वास्तव में एक षडयंत्र के तहत सवर्णों ने अपना रक्त शुद्ध सिद्ध करने के लिये यह कल्पना की। उनके  इस षड़यंत्र के पीछे का मूल उद्देश्य इन छोटी जाति कें लोगों को सवर्णों की अवैध सन्तान बताकर, उनमें हीन भावना उत्पन्न करना था।

मुगल़काल का ज़िक्र करते हुए लेखक ने यह बताया है कि उस काल में अधिकतर युद्ध बन्दी क्षत्रिय होते थे और इन्ही युद्धबंदियों से वलपूर्वक पाखाने की सफ़ाई कराई जाती थी। इनमें से कुछ ने सुविधाओं की लालच में ईस्लाम स्वीकार कर लिया। वे इस्लाम की उचीं जातियों में प्रवेश पा गये तथा जिन्होने भीतर से हिन्दू धर्म संस्कार को संजोय रखा वे बीच मे ही रह गये। सम्भवत: यही कारण है कि इन समुदाय के कुछ लोगों में गगा-जमुना संस्कृति देखने को मिलती है। अधिकांश सफ़ाई कामगार समुदाय के लोग सुअर पालते थे और उसका मांस खाते थे, चूकि मुसलमान सुअर को हर्राम समझते है, इसलिये इस समुदाय के लोग भी घृणा के पात्र बने।

अंग्रेजी राज का जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि अंग्रेज सफ़ाई कामगारों से किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते थे। उन्होंने इन्हें नया नाम स्वीपर दिया । इस दौर में इनसे ज़ल्लाद का काम भी लिया जाता था और मुर्दों की चीरफाड़ भी इन्हीं से कराई जाती थी । ये सारे काम वे नशे की हालत में ही किया करते थे और शासन के अधिकारी उन्हें शराब मुहैया कराते थे । कमोबेश यही स्थिति आज भी है। लेखक का यह कहना कि प्राचीनकाल से लेकर वर्तमानकाल तक इन सफ़ाई कामगार समुदाय के लोगों के साथ छल किया जाता रहा है। वर्तमान में इन भंगियों के हिन्दूकरण की ओर इशारा करते हुए वे कहते है कि आज इन्हें एक षड़यंत्र के तहत वाल्मीकि बना दिया गया है। इन भंगियों की बस्तियों में वाल्मीकि मंदिर स्थापित किये गये।  इस प्रकार वाल्मीकियों की नक़ल में इस समुदाय की दूसरी जातियों ने भी अपने-अपने सन्त ढूंढ लिये हैं ओर उन्हें अपना गुरू मानकार उनकी पूजा करने में ही अपनी सारी शक्ति लगा रहे हैं। इस तरह जो शक्ति उन्हें अपने समग्र विकास में लगानी चाहिये थी, उसे वे इन सन्तों की जयन्ती मानने में खर्च कर रहे हैं। पुस्तक आगे बताती है कि जिस धर्म के कारण उनकी यह दुर्दशा हुई है, उसी धर्म को वे पुष्ट करने में लगे हुए हैं। इन्हें दलित मुक्ति या समानता के आन्दोलनों से काई मतलब नहीं रह गया है।

वर्तमान दौर में सफ़ाई कार्यों में ठेकेदारी प्रथा, सवर्णों की घुसपैठ, आधुनिक मशीनों का प्रयोग आदि कारणों से इस समुदाय में रोजगार के संबंध में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। इसका एक प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ है कि वे अपने बच्चों को शिक्षित करने में जुट गये हैं। भाषागत कुछ कमियों के बावजूद पुस्तक नई स्थापनाए एवं नये आयाम प्रस्तुत करती है। वैसे भी वैचारिक स्थापनाओं के समक्ष ये बातें गौण हो जाती हैं। यह पुस्तक सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं, नीतिनिर्धारकों, महाविद्यालयीन छात्रों एवं आम पाठकों के लिए अत्यंत उपयोगी है ऐसा मेरा विश्वास है।

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